जंगल जलाने वालेे को जीपीएस लोकेशन से ट्रेस कर सकते हैं- डाॅ0 ललित चंद्र जोशी
गेस्ट फैकल्टी, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग,
सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा
पूर्व का समाज चाहे जहां भी रहता आया हो, वो अपनेे पर्यावरण के काफी नजदीक रहा है। उसका जुड़ाव अपने रहने के स्थान के आस-पास के संसाधनों से भी रहा है। शायद यही वजह रही होगी कि जब सभ्यता विकसित हो रही होगी तब का मानव नदियों के समीप रहा। उसने अपने घर भी प्रकृति के मध्य ही बनाए। प्रागैतिहासिक दौर के मानव ने भी नदियों के समीप ही अपने रहने के स्थान बनाए, जहां उसके सिर छुपाने के लिए उडियार थे। जैसे-जैसे सभ्यता विकसित हुई, वैसे वैसे मानव का प्रकृति से लगाव कम होता गया, अपने उपहार स्वरूप संसाधनों से वो विमुख हो गया। उसका एकमात्र लक्ष्य उपभोग का रहा। धीरे-धीरे नगरीकरण बढ़ने लगा और संसाधनों पर दबाब बढ़ने से प्रकृति प्रदत्त ये संसाधन कम होते चले गए। अब हम शुद्ध जल के लिए तरस रहे हैं। नगरों में नदियां एक भीषण नालों में तब्दील हो गई हैं। वहां का पानी तक पीने योग्य नहीं रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों में भी मानवीय हस्तक्षेप के कारण और जनदबाव बढ़ने से प्रकृति के ये उपहार मिटने लगे। घने देवदार के जंगलांे के बीच स्थित जागेश्वर धाम में बहने वाली जटा गंगा का अस्तित्व भी संकट में है। मई माह में जागेश्वर भ्रमण के दौरान पाया कि जटा गंगा सूखने के कगार पर है। इसका कारण जंगलों का कम होना, निर्माण कार्य होना और नदी के उद्गम स्थल के साथ छेड़छाड़। आज जंगलों के निरंतर कटने, मानव बस्तियां बसने से भू-जल स्तर कम हो रहा है। परिणामस्वरूप नदियां सिकुड़ रही हैं। जटा गंगा, कोसी भी सूखने की कगार पर पहुंची है। ऐसे में भविष्य में जल संकट उभर कर आएगा, जिसका अंदेशा सलाहकार एवं जीआईएस के विशेषज्ञ प्रो0 जीवन सिंह रावत ने प्रत्येक मंच से व्यक्त किया है। नदियों के सूखने और नदियों की सहायक गाड़ों तथा बरसाती नालों के सूखने से कुछ दशक में ही भयावह परिणाम दृष्टिगोचर होंगे। उनकी इस विकराल होती हुई चिंता पर अमल करना ही होगा। अन्यथा जल संकट से यह पर्वतीय प्रदेश जूझ जाएगा। वैज्ञानिक प्रो0 रावत का कहना है कि आज तीव्र गति से नदियां सूख रही हैं। अब उत्तराखंड जैसे जल भंडार क्षेत्र में इस तरह नदियों का सूखना चिंताजनक है। इससे भविष्य में जल संकट गहरा जाएगा। उन्होंने कोसी पुनर्जनन जैसे अभियानों के साथ चाल खाल निर्मित कर भू-जल स्तर को बढ़ाने के लिए कार्य किया है। कई हद तक कोसी रिचार्ज भी हुई, देश में इसी तर्ज पर चाल-खाल निर्मित कर वर्षा जल के संग्रहण किए जाने की आवश्यकता है।
वृक्षा रोपण अभियान कर जल के संकट और भावी चुनौतियों से लड़ा जा सकता है लेकिन यह बात गौर करने योग्य है कि वनारोपण अभियान किए तो जोर शोर से हैं किंतु उन अभियानों का कोई फायदा जनमानस को नहीं होता। प्रत्येक वर्ष हरेक संस्था वनारोपण अभियान का संचालन करती है। हालिया दशक में वनारोपण अभियानों की बाढ़ सी आ गई है। किंतु हजारों की संख्या में लगाए हुए पौध न तो दिखाई देते हैं और न वहां जंगल ही बन पाता है। हालांकि आर्मी की पर्यावरण बटालियन द्वारा उगाए जा रहे जंगलों का परिणाम बेहतर है। यदि चिंहित स्थान पर ही वनारोपण किए जाने का आदेश सभी को निर्गत किया जाए तो एक साथ उस स्थान की देखभाली भी हो जाएगी और वनारोपण अभियान सफल भी हो जाएंगे।
जल संकट बहुत बड़ी समस्या है। प्रकृति ने हमे शुद्ध वायु, शुद्ध जल आदि उपहार स्वरूप प्रदान किए हैं। हम इन उपहारों को भुना नहीं पाप रहे हैं। इन प्रकृति प्रदत्त संसाधनों को दरकिनार कर भौतिकवादी संस्कृति का अनुसरण कर रहे हैं। क्या हमें प्रकृति से प्रेम नहीं? क्या प्रकृति को बचाने के लिए हमें सामुहिक तौर पर आगे नहीं आना चाहिए? क्या हमारी जिम्मेदारी नहीं कि हम प्रकृति को बचाने के लिए आगे आएं? ये सभी बातें मनन करने योग्य हैं। हमारे पुरखों ने वनारोपण किए आज हम जंगल देख रहे हैं। यदि हम इस दौर में जंगल नहीं उगा पाए तो आने वाली पीढ़ी के लिए रहना काफी दुष्कर हो जाएगा। जिस तरह से गर्मी बढ़ रही है, उससे जल संकट, वनाग्नि, पर्यावरण असंतुलन, ग्लेशियरों का सिकुड़ना जैसे गंभीर विषय हमारे सामने आए हैं। हमें वास्तविक धरातल पर इन सभी को लेकर कार्य किए जाने की जरूरत है। प्रतिवर्ष हजारों-लाखों रुपए पर्यावरण के संरक्षण के लिए खर्च किए जा रहे हैं, यदि पर्यावरण विदों के विचारों पर कार्य किया जाए तो उसका लाभ शीघ्र मिलेगा।
उत्तराखंड जैसा पर्वतीय प्रदेश जहां के लोग सदैव प्रकृति के नजदीक रहे हैं। ये प्रकति में जीवन तलाश करते हैं। आज वहां वनाग्नि की घटनाओं ने भविष्य को खतरे के नजदीक ला दिया है। वनाग्नि होने से अपार वन संपदा का नाश तो होता ही है, साथ ही साथ खाद्य श्रृंखला भी टूट रही है। असंख्य सांप, कीड़े, चूहे, मकड़ी, मक्खी, बंदर, घुरड़ आदि भी भस्म हो रहे हैं। लगातार वनाग्नि की घटनाएं बढ़ने से विशेषज्ञ वनाग्नि रोकने के उपाय खोज रहे हैं। इसी क्रम में ड्रोन को वनाग्नि थामने के लिए एक बेहतर उपाय के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि जंगल जला कौन रहा है? ये जंगल जलाने वाले कौन हैं? इनको सजा मिल रही है या नहीं? करोड़ों की वन संपदा को जलाने के लिए दोषी कौन? जंगल जलाने वाले को सजा और दंड के प्रावधान पर पुनर्विचार करना होगा। इन सब पर अब भारतीय सरकार को सोचने की आवश्यकता है।
प्रत्येक वर्ष कई हजारों हैक्टेअर जंगल जल जाते हैं। इससे पारिस्थितिकी संकट तो होता ही है साथ ही साथ जल संकट, खाद्य संकट भी उभर कर आते हैं। कई बार पर्यावरण चिंतकों एवं वैज्ञानिकों गंभीर विषय को प्रमुखता से उठाया है। उत्तराखंड में 2021 से 2024 तक के आंकड़े पर गौर करें तो 2021-22 में 33 घटनाएं सामने आईं। 2022-23 में यह घटनाएं 33 से बढ़कर 860 हुई और 2023-24 में 681 घटनाएं जंगलों में आग लगने की थी। हिमाचल में तो एक हजार से ऊपर जंगल में आग लगने की घटनाएं प्रकाश में आई। क्या यह जंगल जलने की घटनाएं हमारे जीवन को आसान बनाऐंगी? हमें चिंतन करना होगा। एक दैनिक समाचार पत्र के आंकड़े पर गौर करें तो नवंबर 2023 से 6 मई 2024 तक उत्तराखंड में 1196 हैक्टेअर जंगल जल चुका है। तीन साल में अपै्रल 2024 ऐसा महीना रहा कि जब देश में जंगलों में आग लगने की सर्वाधिक 5020 घटनाएं हो चुकी हैं। ऐसा नहीं है कि केवल उत्तराखंड में ही वनाग्नि की घटनाएं हो रही हैं। देश के हर कोने में वनाग्नि की घटनाएं हो रही हैं। यहां तक कि अन्य देशों में भी वनाग्नि की घटनाएं चिंता बढ़ा रही हैं। उड़िसा, आंधप्रदेश, छत्तीसगढ जैसे राज्यों में भी साल दर साल जंगल जलने की घटनाएं बढ़ रही हैं।
सरकारें इन जंगल जलने वाली घटनाओं को न तो रोक पा रही है और न आग लगाने वालों को पकड़ पा रही है। कानून यदि कोई आग लगाता हुआ पकड़ा भी जाता है तो उसका चालान काटकर या कुछ दिनों की जेल होने के बाद वह बच निकलता है। जबकि जंगल जलाने के लिए कठोर दंड दिया जाना जरूरी है। जंगल जलने में जीपीए प्रणाली, लोकेशन, सैटेलाइट इमेज आदि तकनीकों को बेहतर बनाकर वनाग्नि रोकने के प्रयासों को सफल बना सकते हैं। वन मंत्रालय, वन विभाग को अपने विभाग में इन नवीन तकनीकों को अपनाकर वनाग्नि रोकने के लिए प्रयास करने की जरूरत है।
अखबारों में वनाग्नि की घटनाओं की सूचना पढ़कर और प्रत्यक्ष रूप से जंगल जलते हुए देखने पर यह प्रश्न मेरे बार बार आता है कि क्या हमारी तकनीक इतनी विकसित नहीं है कि हम जंगल जलाने वालों को पकड़ नहीं सकते। हमारे पास सैटेलाइट के छायाचित्र हैं जिनसे आग लगने की घटनाओं पर समय से पहले रोका जा सकता है। अब जीपीएस का दौर है। जीपीएस लैस गाड़ियां, घटियां, मोबाइल हैं, ऐसे में यह संभव है कि घटित घटना के स्थान पर कौन मौजूद रहा है उसको पकड़ना आसान है। किंतु हमें तकनीक को सामने लाना होगा। जीपीएस या लोकेशन ट्रेस करने से यह मालूम हो जाएगा कि उस घटित स्थल पर कौन सा मोबाइल आदि ऑन रहा जिसमें जीपीएस सिस्टम मौजूद है। उसको ट्रेस किया जा सकता है और आरोपी से कड़ी पूछताछ कर जंगल जलने की घटनाओं को रोका जा सकता है। हमें समय के साथ तकनीकों को अपनाना होगा। यदि तकनीकों का उपयोग वनाग्नि रोकने जैसी गंभीर समस्याओं के लिए होता है तो यह तकनीक की सार्थकता भी है। हमें जीपीएस को इन चुनौतियों से निपटने में प्रयुक्त करना होगा ताकि हम वनाग्नि जैसी विभीषिका से कहीं हद तक रोकथाम लगा सकते हैं।