देश में दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए चार जैनरिक दवाओं का निर्माण शुरू हो गया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि इनसे दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित मरीजों को कम कीमत पर दवाई मिल सकेंगी। चार दुर्लभ बीमारियों- टाइरोसिनेमिया टाइप-1, गौचर्स रोग, विल्सन्स डिजीज और ड्रावेट-लेन्नॉक्स गैसटॉट सिन्ड्रोम के लिए ये दवाएं अब बाजार में उपलब्ध हैं।
दुर्लभ बीमारियों के लिए आठ दवाएं विकसित की
नीति आयोग ने स्वास्थ्य संबंधी सदस्य डॉ. वी.के पॉल ने नई दिल्ली में कहा कि इन बीमारियों के लिए फिलहाल आठ दवाएं हैं जिनमें से चार बाजार में उपलब्ध हैं। बाकी चार अनुमति की प्रक्रिया में हैं।उन्होंने बताया कि भारतीय विनिर्माता ये दवाएं बना रहे हैं। टाइरोसिनेमिया टाइप-1 को पीलिया, बुखार बिगड़ने और लीवर कैंसर से पहचाना जाता है, इसके उपचार के लिए निटिसिनॉन औषधि विकसित की गई है। पहले इस औषधि का आयात किया जाता था। बच्चे के शरीर के वजन के आधार पर प्रतिवर्ष इस दवा पर दो करोड 20 लाख रूपए खर्च करने पडते थे। अब यह खर्च घटकर ढाई लाख रूपए रह जाएगा।
गौचर्स रोग के उपचार के लिए ऐलिगलुस्टैट दवा विकसित की
गौचर्स रोग के उपचार के लिए ऐलिगलुस्टैट दवा विकसित की गई है। इस बीमारी से रोगी का लीवर बढ जाता है और थकान होने लगती है। विल्सन्स डिजीज के कारण आरबीसी हीमोलोसिसि हो जाता है। इसके उपचार के लिए स्वदेशी दवा ट्राईएंटीन विकसित की गई है।
ड्रावेट-लेन्नॉक्स गैसटॉट सिन्ड्रोम के उपचार के लिए कैनाबिडिओल विकसित किया गया
ड्रावेट-लेन्नॉक्स गैसटॉट सिन्ड्रोम के उपचार के लिए कैनाबिडिओल विकसित किया गया है। इसका घोल मुंह के जरिए दिया जाता है। इसे पहले इन दुर्लभ बीमारियों के लिए उपलब्ध सभी दवाओं का आयात किया जाता था और यह इलाज बहुत महंगा पडता था।दुर्लभ बीमारी ऐसी अवस्था है जिससे बहुत कम लोग पीड़ित होते हैं। किसी देश में एक समय केवल छह से आठ प्रतिशत जनसंख्या ही ऐसे रोगों से पीड़ित होती है। स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार भारत में इस तरह के करीब दस करोड़ रोगी होंगे और इनमें से लगभग 80 प्रतिशत रोग जैनेटिक हैं।