18 साल बीत जाने के बाद भी नहीं बढ़ा आशा कर्मचारी का न्यूनतम मानदेय, सदन में भी उठा मामला
18 साल बीत जाने के बाबजूद भी आशा कर्मचारी न्यूनतम मानदेय पर कार्यरत। उत्तराखंड राज्य में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत सन 2005से आशा कर्मचारी स्वास्थ्य विभाग के सहायिका के तौर पर कार्यरत हैं। इन आशा कर्मचारी लोगों के लिए काम बोझ बढ़ने के कारण इन्हीं आशा कर्मचारियों में योग्यता अनुसार सन् 2010मे आशाओं के ऊपर आशा फेसिलेटटर की नियुक्ति की गई।
एक आशा फेसिलेटटर के अधीन 20से 40आशाऐं आती है इनके द्बारा किए गए काम पुष्टि व रिपोर्ट को आगे भेजने का काम आशा फेसिलेटटर का है। अभी वर्तमान में उत्तराखंड में 11315आशा कर्मचारी व 606 आशा फेसिलेटटर है। आशा कर्मचारी लंबे समय से उत्तराखंड शासन प्रशासन को अपने न्यूनतम मानदेय व अन्य मांगों के लिए लगातार गुहार लगाती जा रही है।
वर्तमान में 26फरवरी को उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों से , अलग-अलग आशा संगठनों ने देहरादून में अपनी मांगों के लिए उत्तराखंड सरकार के खिलाफ धरना प्रदर्शन व रैली निकाल कर अपनी मांगे उत्तराखंड मुख्यमंत्री व उत्तराखंड स्वास्थ्य मंत्री को दिया। उत्तराखंड आशा हेल्थ वर्कश यूनियन की प्रदेश अध्यक्ष कमला कुंजवाल के साथ एक शिष्टमंडल ने उत्तराखंड स्वास्थ्य मंत्री से संपर्क किया और अपनी बिभिन मांगों के लिए बातचीत की। स्वास्थ्य मंत्री ने उत्तराखंड की आशा कर्मचारियों की मांगों पर व केरल व हरियाणा राज्य की तरह आशा कर्मचारीयों के लिए रिटायर्ड बेनिफिट के लिए एक कोर कमेटी का गठन करके एक प्रस्ताव पारित करने की बात कह गई थी इस प्रस्ताव पारित में आशा कर्मचारियों के पदाधिकारियों को भी बुलाया जाने की चर्चा हुई। परन्तु 26फरवरी के बाद अब मार्च आगया अभी तक स्वास्थ्य मंत्री जी की तरफ से कोई कारवाई नहीं हुई इधर बिधान, सभा बजट भी पारित हो गया।प्रताप सिंह नेगी समाजिक अल्मोड़ा से आशा कर्मचारियों के समर्थन करते हुए उत्तराखंड सरकार की अनदेखी को देखते बताए।
एक तरफ सरकार आशा कर्मचारी लोगों को स्वास्थ्य विभाग की रीढ़ कहते हैं । दूसरी तरफ उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की आशा कर्मचारी आये दिन अपने न्यूनतम मानदेय व अन्य मांगों के लिए सड़कों पर उतर कर रैली व धरना प्रदर्शन करती आ रही है जो ग़लत है ।शासन प्रशासन ने इन आशा कर्मचारियों की जैनऊन मांगो पर बिचार बिमर्श करके कोई हल निकालना चाहिए। नेगी ने बताया आज के महंगाई के दौर पर एक मजदूर भी पंद्रह से बीस हजार रुपए कमाता है। लेकिन 18साल बीत जाने के बाबजूद भी आशा कर्मचारीयों को मजदूर के बराबर भी मानदेय नहीं मिलता है इस न्यूनतम मानदेय से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों व दुर्गम इलाकों की आशा कर्मचारियों को अपने घर का दिनचर्या चलाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।