Saphala Ekadashi 2024: सफला एकादशी आज, जानें व्रत कथा

Saphala Ekadashi 2024: सफला एकादशी आज मनाई जा रही है । यह साल की पहली एकादशी है। सफला एकदाशी का व्रत लेने से सारी परेशानियां दूर हो जाती हैं और सभी कार्यों में सफलता मिलती है, ऐसी मान्यता है।

Saphala Ekadashi शुभ तिथि व मूहर्त

पौष माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी को सफला एकादशी कहा जाता है। आज सात जनवरी को 12 बजकर 41 मिनट से एकदशी की शुरुवात हो गई है। वहीं इसका समापन 8 जनवरी को रात 12 बजकर 46 मिनट पर होगा।  पारण का समय 8 जनवरी को 7 बजकर 15 मिनट से लेकर 9 बजकर 20 मिनट तक कर सकते हैं।

Saphala Ekadashi (ऐसे करें पूजन)

सफला एकादशी (saphala Ekadashi) के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान कर लें और इसके  साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके व्रत का संकल्प लें।  और भगवान विष्णु की पूजा आरंभ करें। सर्वप्रथम घी का दीपक जलाएं और भगवान विष्णु को जल, पंचामृत आदि से अभिषेक करें। भगवान विष्णु को पीला रंग अत्यधिक प्रिय है इसलिए पीले पुष्प, पीला चंदन, फल आदि भोग चढ़ाएं।  अब एकादशी व्रत कथा, विष्णु चालीसा, विष्णु मंत्र का जाप करें। अंत में आरती करें और दिनभर व्रत के बाद अगले दिन शुभ मुहूर्त में पारण कर लें।

Saphala Ekadashi (व्रत कथा)

जो सफला एकादशी का उत्तम व्रत करता है, वह इस लोक में सुख भोगकर मरने के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होता है। संसार में वे मनुष्य धन्य हैं, जो ‘सफला एकादशी के व्रत में लगे रहते हैं।चलिए जानते हैं सफला एकादशी की व्रत कथा: राजा माहिष्मत की राजधानी चम्पावती नाम से विख्यात एक पुरी है, राजर्षि माहिष्मत के पांच पुत्र थे। उनमें जो ज्येष्ठ पुत्र था, वह बुरे आचरण वाला था जिस कारण उसे राज्य से बाहर निकाल दिया गया।


जिसके बाद लुम्बक उस नगर से निकलकर वन की ओर चला गया। और वहां रहकर भी उसने अपने पापकर्मों को नहीं छोड़ा और नगर का पूरा धन लूटकर ले गया और पकड़े जाने पर उसने अपने को माहिष्मत का पुत्र बताया और सिपाहियों ने उसे छोड़ दिया।

इसके बाद लुम्भक वन में आ गया और मांस तथा वृक्षों के फल खाकर जीवन यापन करने लगा। वह विश्राम पीपल वृक्ष के नीचे करता था। वहां बहुत वर्षों का पुराना पीपल का वृक्ष था। उस वन में वह वृक्ष एक महान देवता माना जाता था।  लुम्भक यहीं निवास करता था। बहुत दिनों के पश्चात् एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया। पौष मास में कृष्ण पक्ष को दशमी के दिन पापिष्ठ लुम्भक ने वृक्षों के फल खाए और वस्त्रहीन होने के कारण रात भर जाड़े का कष्ट भोगा। उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला।

‘सफला’ एकादशी के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा। दोपहर होने पर वह जागा फिर इधर-उधर दृष्टि डालकर वह आसन से उठा और  लड़खड़ाता हुआ वन में चला गया। वह भूख से दुर्बल और पीड़ित हो रहा था। उस समय लुम्भक बहुत-से फल लेकर ज्यों ही विश्राम- स्थान पर लौटा, इसी समय सूर्यास्त हो गया। तब उसने वृक्ष की जड़ में बहुत से फल चुने और निवेदन करते हुए कहा, इन फलों से लक्ष्मीपति भगवन् विष्णु संतुष्ट हो। यो कहकर लुम्भक ने रात भर नहीं सोया।

इस प्रकार अंजाने में ही उसने सफला एकादशी व्रत का पालन कर लिया। उस समय सहसा आकाशवाणी हुई – ‘राजकुमार ! तुम ‘सफला’ एकादशी के प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे।’ बहुत अच्छा’ कहकर उसने वह वरदान कि स्वीकार किया। इसके बाद उसका रूप दिव्य हो गया। तब से उसकी उत्तम बुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गई।

इसके बाद लुम्बक को दिव्य आभूषणों की शोभा से सम्पन्न होकर उसे राज्य प्राप्त हुआ और पंद्रह वर्षों तक वह उसका संचालन करता रहा। इसके बाद भगवान हरि की कृपा से उसे मनोज्ञ नामक पुत्र हुआ। जब वह बड़ा हुआ,तब लुम्भक ने तुरंत ही राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया और वह भगवान श्री हरि की भक्ति में विलीन हो गया।

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