भारत के स्वर्णिम अतीत पर औपनिवेशिक व्यवस्था का दुष्प्रभाव-सुनील पाठक

प्रदेश अध्यक्ष अखिल भारतीय साहित्य परिषद उत्तराखंड सुनील पाठक द्वारा भारत के स्वर्णिम अतीत पर औपनिवेशिक व्यवस्था का दुष्प्रभाव पर एक लेख लिखा गया है। जिसमें उन्होंने नवशिक्षित वर्ग यूरोपीय जीवन शैली के अनुयायी होने के कारण का बखूबी वर्णन किया है।

भारत के स्वर्णिम अतीत पर औपनिवेशिक व्यवस्था का दुष्प्रभाव

नि:सन्देह ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था ने भारत की चिरंतन ज्ञान परम्परा को अपूर्णीय क्षति पहुंचायी। ब्रिटिश व्यवस्था ने भारत को प्रशासनिक एकसूत्र में तो बांधा पर उसके प्रतिफल में भारत के अंग्रेजीकरण का भी प्रयास किया, जो उसके लिये एक स्वाभाविक बात थी पर भारतीय मनीषा उस समय भी इसके लिये चिन्तित थी। इसी संदर्भ में 4875 में आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में कहा कि-

चाहे विदेशी राज्य कितना भी दयालु और प्रजापालक हो, पर वह रहेगा विदेशी ही, इसलिये
राष्ट्र के लिये स्वदेशी राज्य ही सर्वोपरि है।’

संपूर्ण ज्ञान का भंडार यूरोप है

इस व्यवस्था ने सबसे अधिक क्षति भारत की सुदीर्ध ज्ञान परम्परा को पहुंचायी। विज्ञान,दर्शन, चिकित्सा आदि के क्षेत्र में भारत की जो मूलभूत खोजे थीं, वह नेपथ्य में चली गयीं। मैकाले की शिक्षा पद्धति के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान का भंडार यूरोप है और भारत सदैव से अज्ञान के अंधकार में डूबा रहा है।

अधिकांश नवशिक्षित वर्ग यूरोपीय जीवन शैली का अनुयायी

यद्यपि सर विलियम जोंस, जान प्रिंसेप, डॉ0 वेनिस, सर जॉन उडरफ आदि जैसे पाश्चात्य विद्वानों द्वारा भारतीय ज्ञान-विज्ञान के ईमानदार विश्लेषण का भी प्रयास किया गया, पर भारतीय मानस पर मैकाले की कुटिल नीति का प्रभाव अधिक पड़ा। इस समय अधिसंख्य भारतीय समुदाय अपने अतीत को हेय दृष्टि से देखने लगा। अधिकांश नवशिक्षित वर्ग यूरोपीय जीवन शैली का अनुयायी हो गया।

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