कुमाऊं का प्रचलित लोकनृत्य और उसका इतिहास, आइए जानें

कुमाऊं का प्रचलित लोकनृत्य और उसका इतिहास, आइए जानें

छोलिया नृत्य विशेष रूप से उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र व नेपाल के सुदूरपश्चिम प्रदेश में देखने को मिलता है। यह प्रचलित लोकनृत्य एक तलवार नृत्य है, जो प्रमुखतः शादी-बारातों या अन्य शुभ अवसरों पर किया जाता है। सामान्यत: इसे छलिया , छोलिया और हुड्केली के नाम से जाना जाता है।

छोलिया नृत्य का इतिहास

कुमाऊं में चंद वंश के शासन के समय में छोलिया नृत्य का प्रचलन था लेकिन इस नृत्य की शुरुआत खस राजाओं के समय हुई थी, जब विवाह तलवार की नोक पर हुआ करते थे। चंद राजाओं के आगमन के बाद यह नृत्य क्षत्रियों की पहचान बन गया। लोकनृत्य छोलिया को यह नाम ‘छल’ शब्द से मिला था।  जुगल किशोर पेटशाली जी के अनुसार ,”यह नृत्य युद्धभूमि में लड़ रहे शूरवीरों की वीरता मिश्रित छल का नृत्य है। छल से युद्ध भूमी में दुश्मन को कैसे पराजित किया जाता है , यही प्रदर्शित करना इस नृत्य का मुख्य लक्ष्य है। इसीलिए इसे छल नृत्य ,छलिया नृत्य या छोलिया नृत्य की संज्ञा दी गई है।

इन क्षेत्रों में प्रचलित है छोलिया नृत्य

छोलिया नृत्य विशेष रूप से कुमाऊँ मण्डल के पिथौरागढ़, चम्पावत, बागेश्वर और अल्मोड़ा जिलों में और नेपाल के ऐतिहासिक डोटी क्षेत्र में लोकप्रिय है। इस नृत्य को नेपाली में हुड्केली और डोटेली में हुड़्क्या के नाम से जाना जाता है।

छोलिया नृत्य करने का तरीका

एक छोलिया दल में सामान्यतः 22 कलाकार होते हैं, जिनमें 8 नर्तक तथा 14 संगीतकार होते हैं। इस नृत्य में नर्तक युद्ध जैसे संगीत की धुन पर क्रमबद्ध तरीके से तलवार व ढाल चलाते हैं, जो कि अपने साथी नर्तकों के साथ नकली लड़ाई जैसा प्रतीत होता है। वे अपने साथ त्रिकोणीय लाल झंडा (निसाण) भी रखते हैं। नृत्य के समय नर्तकों के मुख पर प्रमुखतः उग्र भाव रहते हैं, जो युद्ध में जा रहे सैनिकों जैसे प्रतीत होते हैं।

छोलिया नृत्य का धार्मिक महत्व

प्रचलित लोकनृत्य होने के अलावा छोलिया का धार्मिक महत्व भी है। इस नृत्यकला का प्रयोग अधिकतर राजपूत समुदाय की शादीए बरातों में होता है। छलिया को शुभ माना जाता है तथा यह भी धारणा है की यह बुरी आत्माओं और राक्षसों से बारातियों को सुरक्षा प्रदान करता है।

नृत्य में प्रयोग किए जाने वाले प्रमुख वाद्ययंत्र

छलिया नृत्य में कुमाऊं के परंपरागत वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है, जिनमें तुरी, नागफनी और रणसिंह प्रमुख हैं। इनका प्रयोग पहले युद्ध के समय सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए किया जाता था। इसके अतिरिक्त मसकबीन (बैगपाइप), नौसुरिया मुरूली तथा ज्योंया का प्रयोग भी किया जाता है। तालवाद्यों में ढोल तथा दमाऊ का प्रयोग होता है, और इन्हें बजाने वालों को ढोली कहा जाता है।

ऐसी होती हैं छलिया दल की पोशाकें

छलिया दल के नर्तक पारंपरिक कुमाउँनी पोशाक पहनते हैं, जिसमें सफेद चूड़ीदार पायजामा, चोला,सिर पर टांका तथा चेहरे पर चंदन का पेस्ट होता हैं। तलवार और पीतल की ढालों से सुसज्जित उनकी यह पोशाक दिखने में कुमाऊं के प्राचीन योद्धाओं के सामान होती है।

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