जब उन्हें दबोचा, नोचा, घसीटा और परेड कराई,
तब मैंने हवाओं का रुदन साफ-साफ सुना
घास, पत्तों की सरसराहट में कुछ न कर पाने की तड़प थी।
श्श्निवत हो गए पांवों तले छातियां रौंदी जा रही थी,
और भीड़ के गंध भरे निशान आत्मा पर दर्ज हो रहे थे,
सारे के सारे घाव देह से परे के थे,
इन्हीं घावों ने मरने नहीं दिया
जबकि, योनि और स्तनों से उनके हाथ तभी हटे
जब लगा कि अब मर गई हैं!
मेरा यकीन हमेशा के लिए दरक गया
क्योंकि रो सकने वाली कोई भी इंसानी आवाज जिंदा नहीं थी!
कानों में गूंज रहे विजयी ठहाके
हवाओं के क्रुद्ध-स्वर पर भारी पड़ते रहेे।
उनके प्राण कहीं बीच में अटक गए,
जबकि प्राणों के शेष रहने,
न रहने का कोई अर्थ नहीं बचा था।
वैसे भी, दिल्ली बहुत दूर थी!
…………..
उन अंतहीन पलों में
बारिश भरा आसमान खुद में एक मर्सिया बन गया
और सुबह की रोशनी ऐसी रात के मुहाने पर अटक गई
जिसके खत्म होने की कोई उम्मीद शेष न थी।
ऐसा नहीं कि पहली बार औरत की देह को लूटा-खसोटा गया हो,
ये हजारों साल पहले भी हुआ, अनेक बार
लेकिन, तब कहानियों में था,
आज भारत माता की देह पर उभरी अनगिन खरोंचों में है!
गौर से देखो,
ये खरोंचे वे बीज हैं जो बार-बार उगेंगे
और हर बार जमीन पर लहू की लंबी लकीर खींच कर देहरियों तक जाएंगे।
घर जाओ तो देखना-
शायद, मां, बहन या बेटी के बदन पर कोई खरोंच उभर आई हो!
………
लोग कहते हैं कि उस वक्त शहर थक कर सोया था
कोई कहता है, शर्म में डूबे होने से खामोश था
जबकि उन्मादी भीड़ इस खामोशी का मुंह नोंच रही थी।
फिर भी, एक उम्मीद में शहर की तरफ देखा,
लेकिन कोई ऐसा न दिखा
जो हवाओं के रोने और धरती के कांपने की आवाज सुन सके।
कोई नहीं सुन सका।
कोई नहीं रोया।
फिर भी,
द्रौपदी के आंसुओं में कोई कतरा कुंती का भी रहा होगा
और
उन सप्त-देवियों का भी
जो मणिपुर की धरती पर दिव्य-नृत्य करती हैं!
डॉ. सुशील उपाध्याय