‘डिलीवरी बॉय’ डा. ललित योगी की लिखित कविता
डिलीवरी बॉय
हम पहाड़ के बाखलियों के सीधे लड़के
दुबले-पतले, सीधे-सादे जैसे भी हों।
घर से निकलकर खुद कमाते-खाते हैं
हम मेहनत-मजदूरी कर,
अपना घर-परिवार संभालते हैं।
टिकी रहती है हमारी निगाह-
लोगों के फेसबुक वॉल पर
कि कहीं डिलीवरी बॉय का ऐड दिख जाए
विज्ञापनों में अक्सर छपा होता है-
एक स्मार्ट डिलीवरी बॉय की जरूरत है
जिसके पास दुपहिया और स्मार्टफोन हो
देखे रहते डिलीवरी बॉय के विज्ञापन
तन्खा मिलेगी 12 से 15 हजार तक,
कुकिंग का अनुभव अलग से..
हम ठेठ पहाड़ी लड़के दुबले-पतले जैसे भी हैं
दिन-रात ग्राहकों के डोर पर जाते
पिज्जा,मोमो, केक और बर्गर डिलीवर करते।
रेस्टोरेंट से खाना और ऑनलाइन सामान
ग्राहकों तक पहुंचाते।
धूप, ठंड और बरसात के बीच,
पीठ पर बड़ा बैग लटकाए,
दुपहिया में पिज़्ज़ा पेटी बांधे।
करते हैं- काम 24X7 ।
ग्राहकों को करते हैं डिलीवर,
उनके मंगाए हुए सामान को।
इसीलिए ग्राहक हमें कहते हैं-
डिलीवरी बॉय।
होटलों में आर्डर लेते,
रेस्टोरेंट में तैनात मिलते।
पिज़्ज़ा-बर्गर के कैफे में,
पिट्ठू तैयार कर निकलते
फिर फोन की घण्टी आते ही,
तैयार रहते गंतव्य को।
दौड़ाते बाइक, जान को हथेली पर रखकर
इनको न तेंदुओं का डर और न जिंदगी का
आनन-फानन में सामान डिलीवरी करते।
ग्राहक ऑनलाइन बुकिंग कराते,
और बाइक से डिलीवर करने जाते-
डिलीवर बॉय..
इन्हें देख समझ आये हैं,
जिंदगी के असल मायने..
ललित योगी