प्रो० सुशील उपाध्याय की कविता, प्रेत के पांव….



मुझे अक्सर संदेह होता है
कि मैं आदमी हूं!
क्योंकि
रास्ते में गिर जाती है मेरी नाक,
आंखें और दूसरे अंग भी,
राह चलता कोई भला आदमी
पढ़ता है मेरे कपाल की लकीरें
और लौटा जाता है खोए हुए अंग
और
फिर बदल जाता हूं आदमी में!
मुझे अक्सर लगता है
खेत की मेढ़ पर खड़ा बिजूका
कोई और नहीं, मैं ही हूं
और
भट्टी पर नुकीले सींकचों में टंगे मुरगे
ने भी मेरे भीतर ही ली थी
आखिरी सांस!
……………………….
अक्सर, आगे जाते हुए
मेरे पैर मुड़े होते हैं पीछे की तरफ
जैसे, मां की कहानी का प्रेत
मनचाही दिशा में घुमा लेता था अपने पांव
और सिर को लटका लेता था हाथों में।
लोग हंसते हैं
और संदेह से घिर जाते हैं
कि
मैं भी आदमी हूं ?
……………………….
प्रायः
कोई मुझे सौंप जाता है अपनी झुर्रियां
मांग ले जाता है यौवन
फिर नहीं आता कभी लौटकर।
और मुंडेर पर बैठकर देखता रहता हूं रास्ता
जैसे कोई मरियल कौवा गिन रहा हो आखिरी दिन।
तब भी
मुझे संदेह होता है खुद पर
कि मैं आदमी हूं!
……………
आप यकीन कर सकते हैं-
हर रोज खुशी के गीत रचने के लिए कलम उठाता हूं
लेकिन दुख की सान खुरों को पैना कर देती है
पैने खुर रौंद देते हैं कि कलम की नोक
टूटी हुई कलम
लिखती है अनगढ़, बेतरतीब और कलाहीन शब्द!
जब, शब्दहीन कोलाहल में कोई पुकारता है,
तो हर पुकार के केंद्र में खुद को पाता हूं
तब यकीन करना चाहता हूं-
मैं भी आदमी ही हूं
ठीक तुम्हारी तरह!

प्रो० सुशील उपाध्याय

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